कोच्चि। भारतीय न्यायपालिका में एक ऐसा फैसला आया है जो मानवीय संवेदनाओं और कानून के कठोर नियमों के बीच संतुलन का बेजोड़ उदाहरण पेश करता है। केरल हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्हीकृष्णन ने ऐसा निर्णय दिया है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए न्यायिक इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।
पिता-पुत्री के अटूट रिश्ते की जीत
तवानुर केंद्रीय कारागार में बंद 50 वर्षीय अब्दुल मुनीर के जीवन में खुशियों का एक नया अध्याय तब शुरू हुआ जब अदालत ने उन्हें अपनी बेटी के वकील नामांकन समारोह में शामिल होने के लिए पांच दिन की आपातकालीन छुट्टी प्रदान की। यह फैसला केवल एक न्यायिक आदेश नहीं बल्कि पारिवारिक भावनाओं की गहरी समझ को दर्शाता है।
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मुनीर की बेटी ने कन्नूर से एलएलबी की डिग्री पूरी की थी और 11-12 अक्टूबर को उसका औपचारिक नामांकन होना था। बेटी का सपना था कि इस महत्वपूर्ण क्षण में उसके पिता उसके साथ खड़े हों। लेकिन जेल प्रशासन द्वारा 17 सितंबर को उनके आवेदन को खारिज कर दिया गया था, जिसके बाद वे हाई कोर्ट पहुंचे थे।
न्यायाधीश की संवेदनशील सोच
न्यायमूर्ति कुन्हीकृष्णन का फैसला न्यायिक बुद्धिमत्ता और मानवीय करुणा का अनूठा मिश्रण था। उन्होंने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा, “एक युवा लड़की ने अपनी एलएलबी पूरी की है और उसका सपना है कि वह अपने पिता की उपस्थिति में वकील के रूप में नामांकित हो। भले ही याचिकाकर्ता एक दोषी हो और पूरी दुनिया उसे अपराधी मानती हो, लेकिन हर बच्चे के लिए पिता एक नायक होता है।”
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इस टिप्पणी में न्यायाधीश की गहरी मानवीय समझ झलकती है। उन्होंने आगे कहा, “यह अदालत बेटी की भावनाओं से आंखें बंद नहीं कर सकती।” यह वाक्य न्यायपालिका की संवेदनशीलता को दर्शाता है।
कानूनी दुविधा और समाधान
लोक अभियोजक ने इस याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया था कि आपातकालीन छुट्टियां हर निजी अवसर के लिए नहीं दी जा सकतीं। न्यायालय ने इस कानूनी सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी मानवीय पहलुओं को नजरअंदाज नहीं किया। अदालत ने स्पष्ट किया कि सामान्यतः अधिवक्ता के रूप में नामांकन आपातकाल की श्रेणी में नहीं आता, लेकिन इस मामले की विशेष परिस्थितियों ने इसे अलग बनाया।
न्यायमूर्ति कुन्हीकृष्णन ने बिंदु के.पी. बनाम केरल राज्य मामले का उल्लेख करते हुए कानूनी मिसाल का सहारा लिया, लेकिन साथ ही इस मामले की अनूठी परिस्थितियों पर भी जोर दिया।
शर्तों के साथ स्वीकृति
अदालत ने मुनीर को 10 से 14 अक्टूबर तक की छुट्टी मंजूर की लेकिन कुछ सख्त शर्तों के साथ। उन्हें एक लाख रुपये की जमानत राशि और दो सक्षम जमानतदारों की व्यवस्था करनी थी। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि छुट्टी की अवधि समाप्त होते ही उन्हें तुरंत जेल वापस लौटना होगा।
न्यायिक मिसाल की सीमा
न्यायमूर्ति कुन्हीकृष्णन ने यह भी स्पष्ट किया कि यह निर्णय इस विशेष मामले की परिस्थितियों के आधार पर दिया गया है और भविष्य के अनुरोधों के लिए इसे मिसाल नहीं माना जाना चाहिए। यह टिप्पणी न्यायिक विवेक और जिम्मेदारी को दर्शाती है कि कानून की व्याख्या में लचीलापन तो होना चाहिए लेकिन बिना किसी दुरुपयोग की गुंजाइश के।
समाज के लिए संदेश
यह फैसला भारतीय न्यायपालिका की उस मानवीय सोच को प्रकट करता है जहां कानून के साथ-साथ मानवीय रिश्तों की गरिमा का भी सम्मान किया जाता है। न्यायमूर्ति कुन्हीकृष्णन का यह निर्णय दिखाता है कि न्याय केवल कानूनी धाराओं का पालन नहीं बल्कि मानवीय भावनाओं की गहरी समझ भी है।
केस शीर्षक अब्दुल मुनीर बनाम तवानुर केंद्रीय जेल एवं सुधार गृह अधीक्षक व अन्य के रूप में दर्ज इस मामले में याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व श्री सनी मैथ्यू और श्रीमती भावना के.के. ने किया जबकि राज्य की ओर से वरिष्ठ लोक अभियोजक श्री हृत्विक सी.एस. ने पेशी की।
यह निर्णय न केवल एक पिता और बेटी के रिश्ते की जीत है बल्कि भारतीय न्यायपालिका की उस संवेदनशीलता का प्रमाण भी है जो कानून के कठोर नियमों में भी मानवीयता का स्थान बनाए रखती है।



